As Tеachеrs’ Day approachеs, wе find oursеlvеs rеflеcting on thе rеmarkablе individuals who havе dеdicatеd thеir livеs to shaping young minds and igniting thе flamеs of knowlеdgе. To honor thеsе mеntors, wе havе curatеd dogri poеms that еxpress thе profound influеncе tеachеrs havе on our pеrsonal and acadеmic journеys.
कविता 1 –
अस रोज स्कूल जंदे आं,
शिक्षक असेंगी सबक सखांदे न,
दिलै दे ञ्याणें दा खाल्ली कागज,
ओह् एह् दे पर अमिट ज्ञान लिखदे न,
कुसै गी जाति ते धर्म दी बुनियाद पर नेईं लड़ना चाहिदा,
सभनें शा मता प्यार सखाओ।
असेंगी कामयाबी किʼयां मिलदी ऐ,
समझांदा ऐ जे शिखर पर किʼयां चढ़ना ऐ,
सच्चाई स्कूलें च ऐ,
इक चंगा माह् नू बनाओ।
कविता 2-
शिक्षक इक फरिश्ता होंदा ऐ,
असेंगी किश नमां सखांदा ऐ,
कदें – कदें में इक कविता सुनां,
कदें – कदें इक क्हानी दस्सी जंदी ऐ,
क्या कदें अस शैतानी आं,
कान फड़ियै नानी गी चेता करदे होई,
अच्छे कम्मै पर बधाई,
शिक्षक मिगी आत्मविश्वास दिंदे न,
शिक्षक इक फरिश्ता होंदा ऐ,
असेंगी किश नमां सखांदा ऐ ||
कविता 3-
अज्ञानता गी ज्ञान दी लोऽ दस्सियै ,
न्हेरे गी लोऽ तक्कर लेई जाइयै ।
एह् ओह् गुरु न जेह् ड़े ज्ञान दी किरणां फैलांदे न,
ओह् अपने शिश्यें दा भविक्ख उज्जवल बनांदे न।
कामयाबी दी बत्तै पर चलना सखाइयै ,
असेंगी कामयाबी दे शिखर पर लेई जंदा ऐ।
जीवन गी दिशा देइयै ,
एह् गुरु ऐ जेह् ड़ा असें सभनें गी कामयाब बनांदा ऐ।
शिक्षक दिवस पर कबीरदास के दोहे
गुरु पारस को अन्तरो, जानत हैं सब सन्त।
वह लोहा कंचन करे, ये करि लये महन्त॥
भावार्थ:- इस दोहे में गुरु की तुलना एक पारस से की गई है, जो लोहा को सोना बना देता है। यहाँ पर पारस की विशेषता बताई गई है कि जैसे पारस की छूने से लोहा सोना बन जाता है, वैसे ही गुरु की उपस्थिति और शिक्षा से गुरु शिष्य को अपने समान महान बना लेता है।
गुरु की आज्ञा आवै, गुरु की आज्ञा जाय।
कहैं कबीर सो संत हैं, आवागमन नशाय॥
भावार्थ:- इस दोहे में संत कबीर यह बता रहे हैं कि सच्चे संत वे होते हैं जो गुरु की आज्ञा को पूरी तरह मानते हैं और उस पर अमल करते हैं।
कुमति कीच चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय।
जनम-जनम का मोरचा, पल में डारे धोया॥
भावार्थ:- कबीर दास कह रहे हैं कि एक मूर्ख शिष्य की बुद्धि जैसे कीचड़ से भरी हुई होती है, लेकिन गुरु के ज्ञान का जल उस कीचड़ को साफ कर देता है। गुरु का ज्ञान इतना शक्तिशाली होता है कि वह जन्म-जन्म के बुरे कर्मों (मोरचा) को एक पल में धो डालता है।
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि-गढ़ि काढ़ै खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट॥
भावार्थ:- गुरु को एक कुम्हार की तरह समझो और शिष्य को एक मटके के रूप में। गुरु उस मटके को बार-बार गढ़ते और सुधारते हैं ताकि उसमें कोई खोट न रहे। गुरु अपने शिष्य के अंदर के दोषों को दूर करते हैं, जबकि बाहरी रूप से कभी-कभी कठोरता भी दिखाते हैं।
गुरु समान दाता नहीं, याचक शीष समान।
तीन लोक की सम्पदा, सो गुरु दीन्ही दान॥
भावार्थ:- गुरु जैसा कोई दाता नहीं होता। गुरु ही याचक की तरह होते हैं, जो सब कुछ देने के लिए तैयार रहते हैं। गुरु तीनों लोकों की सम्पत्ति भी शिष्य को दान करते हैं, अर्थात् वे अपने ज्ञान और आशीर्वाद से शिष्य को सब कुछ देते हैं।
सब धरती कागज करूँ, लिखनी सब बनराय।
सात समुद्र की मसि करूँ, गुरु गुण लिखा न जाय॥
भावार्थ:- अगर पूरी धरती को कागज मान लिया जाए और सभी पेड़-पौधों को कलम मान लिया जाए, और सात समुद्रों को स्याही मान लिया जाए, तब भी गुरु के गुण और उनके महत्व को पूरी तरह से नहीं लिखा जा सकता। उनका गुण इतना विशाल और अमूल्य है कि उसकी सीमाएं नहीं हैं।